15 अगस्त 1947… महात्मा गांधी ने आजादी के जश्न में शामिल होने से क्यों मना किया?

15 अगस्त 1947: एक ऐतिहासिक दिन का परिचय

15 अगस्त 1947 को भारत ने ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाई, यह दिन भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, और सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी नेताओं के नेतृत्व में भारतीय जनता ने अपने अथक प्रयत्नों और बलिदानों से इस ऐतिहासिक उपलब्धि को संभव बनाया। लगभग 200 वर्षों के ब्रिटिश शासन और संघर्ष के बाद, भारतीय समाज ने अपनी संप्रभुता और स्वतंत्रता की दिशा में यह निर्णायक कदम उठाया।

इस दिन स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में दिल्ली में विशेष समारोह आयोजित किए गए थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले के प्राचीर से आधिकारिक तौर पर आम जनता को संबोधित किया और भारतीय ध्वज को फहराया। इस ऐतिहासिक घटना ने भारतीय जनता के मन में अद्वितीय उथल-पुथल और गौरव का संचार किया। नेहरू जी का स्वतंत्रता के पहले दिन दिया गया भाषण, जिसे ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ के नाम से जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता की भावना का प्रतीक है।

लाल किले पर इस समारोह के दौरान, राष्ट्र ने अपने महान क्रांतिकारी नेताओं और उन लाखों अनगिनत नायकों को श्रद्धांजलि दी जिन्होंने अपनी जान की कुर्बानी दी। यह दिन ना सिर्फ भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए भी एक मिसाल बना। ऐसे समय में जब वैश्विक स्तर पर उपनिवेशवाद उन्मूलन का दौर शुरू हो रहा था, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने अन्य देशों को प्रेरणा दी। 15 अगस्त 1947 का दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मील का पत्थर है, जिसने न केवल भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदला बल्कि जीवंत लोकतंत्र के सपनों को साकार करने में सहयोग दिया।

नेहरू और पटेल का गांधी को निमंत्रण

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और देश के प्रथम उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने महात्मा गांधी को दिल्ली बुलाने का विशेष अनुरोध किया था ताकि वे स्वतंत्रता दिवस समारोह का हिस्सा बन सकें। नेहरू और पटेल अच्छी तरह समझते थे कि गांधी जी के अजेय संघर्ष और उनके आत्मसमर्पण के बिना स्वतंत्रता की यह लड़ाई सफल नहीं होती। गांधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग का अनुसरण करते हुए, भारत की स्वतंत्रता के लिए जो अथक प्रयास किए थे, वे अद्वितीय थे।

नेहरू और पटेल ने इस ऐतिहासिक अवसर का महत्त्व समझते हुए, गांधीजी के योगदान को दृढ़ता से मान्यता दी और उन्हें भारत की स्वतंत्रता के जश्न में शामिल होने की अपील की। गांधीजी को निमंत्रित करते समय, नेहरू और पटेल ने इस तथ्य को भली-भांति समझा कि गांधीजी का वहां उपस्थित रहना न केवल जनता के लिए बल्कि स्वयं उनके लिए भी एक प्रेरणादायक और उत्साहवर्धक क्षण होगा।

इन दोनों नेताओं को यकीन था कि महात्मा गांधी, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी आजादी की लड़ाई में लगाई थी, इस महान अवसर पर उनके साथ रहेंगे और राष्ट्रीय आंदोलन की परिणति को अपनी उपस्थिति से सम्मानित करेंगे। नेहरू और पटेल ने अपनी अपील में यह भी जिक्र किया कि गांधीजी की उपस्थिति से लाखों भारतीयों को प्रेरणा और सांत्वना मिलेगी जिन्होंने गांधीजी को अपने आदर्श और पथप्रदर्शक माना है।

महात्मा गांधी का अस्वीकार

महात्मा गांधी, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता, 15 अगस्त 1947 के स्वतंत्रता दिवस के समारोह में शामिल नहीं होने का निर्णय किया। यह निर्णय अधिकांश लोगों के लिए चौंकाने वाला था, क्योंकि गांधी जी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनके इस अस्वीकार के पीछे कई विचारशील कारण थे, जो उन्होंने खुलकर व्यक्त किए थे।

गांधी जी का मानना था कि स्वतंत्रता के साथ ही देश ने विभाजन का दर्द भी सहा है। उनके लिए भारत और पाकिस्तान का विभाजन अस्वीकार्य था, क्योंकि उन्होंने सदैव एक अखंड भारत का सपना देखा था जहां सभी जाति, धर्म, और भाषा के लोग एक साथ रहते हों। विभाजन की त्रासदी ने लाखों लोगों की ज़िन्दगियों को प्रभावित किया, और उनके लिए इस समय जश्न मनाना संभव नहीं था।

इसके अतिरिक्त, गांधी जी ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा गरीबों और शोषितों के उत्थान के लिए समर्पित किया। स्वतंत्रता के बावजूद भी वे इस बात से चिंतित थे कि देश की गरीबी और असमानता कब तक रहेंगे। इस प्रकार, उन्होंने सोचा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वे कैसे जश्न मना सकते हैं जब लाखों लोग अभी भी निर्धनता और असमानता का सामना कर रहे थे।

इस निर्णायक मानसिकता के साथ, गांधी जी ने स्वतंत्रता समारोह से दूर रहते हुए अपने अनुयायियों और विरोधियों दोनों को एक महत्वपूर्ण संदेश दिया। यह उनके उस सिद्धांत का हिस्सा था जिसे वे लगातार प्रचारित और अमल में लाते रहे – सत्य और अहिंसा के माध्यम से सामाजिक और नैतिक सुधार। इस निर्णय ने उनके प्रति आदर और श्रद्धा को और अधिक बढ़ाया।

बापू की प्राथमिकताएँ: हिंसा के खिलाफ संघर्ष

महात्मा गांधी का मानना था कि भारत की स्वतंत्रता के साथ जो विभाजन हुआ, वह उनके आदर्शों के खिलाफ था। वे अहिंसा के प्रतिपालक थे और उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर चलाया था। विभाजन के दौरान हुए नरसंहार और हिंसा ने गांधी जी को गहरे तक आहत किया था। वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि जिस स्वतंत्रता के लिए उन्होंने संघर्ष किया, वह इतनी बड़ी पीड़ा और खूनखराबे की वजह बनेगी।

गांधी जी का उद्देश्य न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था, बल्कि एक संगठित और शांतिपूर्ण समाज का निर्माण भी था। विभाजन के समय में, जब हजारों लोग मारे गए और लाखों ने अपने घर-परिवार और जमीन खो दी, तब गांधी जी ने अपने आप को स्वतंत्रता के उत्सव से दूर रखने का निर्णय लिया। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण था लोगों की सुरक्षा और उनके बीच शांति स्थापित करना।

इस दौरान, पश्चिमी बंगाल और दिल्ली में सांप्रदायिक अशांति की स्थितियों के बीच, उन्होंने चुप्पी साधी नहीं बल्कि अपने सत्याग्रह को जारी रखा। गांधी जी का मानना था कि विभाजन की त्रासदी ने उनके जीवन के उद्देश्य को और भी महत्वपूर्ण बना दिया। यही कारण था कि उन्होंने 15 अगस्त 1947 के आजादी के जश्न में शामिल होने से मना किया।

गांधी जी की आलोचना करने वालों ने उनकी इस कार्रवाई को समझने में भूल की। उन्होंने यह नहीं देखा कि गांधी जी का हृदय कितना विरक्त हो गया था समुदायों के बीच की इस विभाजनकारी हिंसा से। जबकि पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था, गांधी जी का ध्यान उन लोगों की ओर था जो इस हिंसा का शिकार हो गए थे और जिन्हें उनकी मदद की सबसे ज्यादा जरूरत थी।

महात्मा गांधी का सपना केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था। उन्होंने भारतीय समाज के नैतिक और सामाजिक सुधार की परिकल्पना की थी, जिसे वे ‘रामराज्य’ के रूप में चित्रित करते थे। उनका मानना था कि ‘रामराज्य’ एक ऐसा समाज होगा जहां सभी वर्गों और समुदायों में समानता और न्याय होगा। गांधीजी की दृष्टि में यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी, बल्कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था कि वह इन आदर्शों को अपनाए और उन्हें अपनी दिनचर्या में लागू करे।

रामराज्य की स्थापना के लिए गांधीजी ने कई महत्वपूर्ण सिद्धांतों और विचारधाराओं का समर्थन किया। वे अहिंसा, सत्य, और आत्मनिर्भरता को समाज के प्रमुख स्तंभ मानते थे। उनके विचार में अहिंसा केवल हिंसा न करना नहीं था, बल्कि यह एक जीवन शैली थी जो सद्भावना, सहयोग और दूसरों की मदद पर आधारित थी। सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें अपने जीवन के प्रत्येक पहलू में ईमानदारी बनाए रखने की प्रेरणा दी। आत्मनिर्भरता के सिद्धांत ने उन्हें ग्राम स्वराज की अवधारणा को जागरूक किया, जिसका उद्देश्य प्रत्येक गाँव को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र बनाना था।

महात्मा गांधी का यह दृष्टिकोण स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी प्रदर्शित हुआ था। वे चाहते थे कि स्वतंत्रता के बाद भारत एक ऐसे समाज का निर्माण करे जहां सांप्रदायिक सद्भाव, सामाजिक समानता और नैतिकता का शासन हो। उनका मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ भारतीय जनता को नैतिक और सामाजिक स्तर पर भी स्वतंत्रता प्राप्त करनी होगी। गांधीजी का यह सपना केवल आदर्शवाद तक सीमित नहीं था, बल्कि उनके विचार और कार्यों में व्यावहारिकता और संवेदनशीलता का भी समावेश था।

अंत में, महात्मा गांधी का ‘रामराज्य’ का सपना एक नैतिक और सामाजिक रूप से सुधरे हुए समाज का प्रतीक था। उन्होंने अपने पूरे जीवन में इन आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य किया और यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद भी उनकी शिक्षाएं और सिद्धांत आज भी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण बने हुए हैं।

गाँधी जी का मानवता से प्रेम

महात्मा गांधी का जीवन मानवीय मूल्यों, प्रेम और आपसी सद्भावना के सिद्धांतों पर आधारित था। उनके विचार और कार्यों में यह स्पष्ट रूप से झलकता था कि उन्होंने मानवता को सर्वोपरि माना और सोचा कि स्थायी सुख और शांति केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं, बल्कि समाज के नैतिक और मानसिक उत्थान से प्राप्त हो सकती है। उनके अनुसार, स्वतंत्रता का अर्थ केवल विदेशी शासन से मुक्ति नहीं था, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना था कि हर व्यक्ति के साथ समानता और सम्मान का व्यवहार किया जाए।

गांधी जी का मानना था कि आत्मिक और नैतिक उन्नति से ही सच्ची स्वतंत्रता मिल सकती है। इस दृष्टिकोण से, उन्होंने विभिन्न समुदायों के बीच सामंजस्य बहाल करने के लिए निरंतर प्रयास किए। उनका विश्वास था कि अगर समाज में प्रेम और आपसी समझ का वातावरण होगा तो वास्तविक स्वतंत्रता तभी फल-फूल सकेगी। इसके लिए वे हिन्दू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता निवारण और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर काम करते रहे।

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जब देश हिंसा, अव्यवस्था और विभाजन की स्थितियों से गुजर रहा था, गाँधी जी केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के महत्व को नहीं, बल्कि समाज में नैतिकता और मानवता बहाल करने की बात करते थे। उनके प्रयासों का मकसद यही था कि विभिन्न समुदायों के बीच शांति और विश्वास की भावना को पुनर्स्थापित किया जा सके।

इस भावना के तहत, गांधी जी का सन्देश यही था कि सच्ची आजादी वही है जिसमें हर इंसान को गरिमा और सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिले। उन्होंने अनगिनत प्रयास किए ताकि समाज का हर तबका समृद्धि और शांति से जी सके। गाँधी जी की इसी मानवीय दृष्टिकोण ने उन्हें देश और दुनिया में एक महान नेता के रूप में स्थापित किया।

15 अगस्त 1947 को, जब पूरा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था, महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे, बल्कि वे बंगाल में उपस्थित थे। यह समय था जब भारत विभाजन की त्रासदी से गुजर रहा था और बंगाल भी इस विभाजन के परिणामस्वरूप सांप्रदायिक हिंसा का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। गांधी जी ने बजाय स्वतंत्रता के उत्सव में शामिल होने के, बंगाल में शांति स्थापित करने को प्राथमिकता दी।

बंगाल में सांप्रदायिकता और हिन्सा की विभीषिका चरम पर थी। गांधी जी का मानना था कि स्वतंत्रता का सही अर्थ तभी है जब भारत के सभी हिस्सों में शांति और सद्भाव बना रहे। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के अपने सिद्धांतों पर चलते हुए बंगाल में शांति बहाल करने के लिए अथक प्रयास किए। वे विभिन्न समुदायों के नेताओं के साथ बैठकें करते, आम जनता से अपील करते और सभी को एक साथ मिलकर शांति की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करते।

महात्मा गांधी का यह प्रयास था कि सांप्रदायिक हिंसा की आग को शांत किया जाए और सभी समुदायों के बीच विश्वास और सद्भावना स्थापित की जा सके। उनके लिए, स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं था कि हम केवल विदेशी शासन से मुक्त हों; उनका मानना था कि आंतरिक शांति और सामंजस्य भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने निजी आराम और स्वतंत्रता के जश्न को त्याग दिया। उन्होंने यह भी कहा था कि जब तक लोग शांतिपूर्वक और प्रेमपूर्वक नहीं रह सकते, तब तक स्वतंत्रता का वास्तविक आनंद नहीं लिया जा सकता।

गांधी जी के इस महान कार्य को देखकर यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए शांति और मानवता का आदर्श सबसे ऊपर था। स्वतंत्रता के महोत्सव में न सम्मिलित होकर, उन्होंने उस समय की वास्तविक और महत्वपूर्ण समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया, जिससे भारत का यह महानायक सदैव याद किया जाएगा।

गांधी जी की अनुपस्थिति: एक महत्वपूर्ण संदेश

महात्मा गांधी की 15 अगस्त 1947 के स्वतंत्रता दिवस के मुख्य उत्सव में अनुपस्थिति ने एक गहरा और महत्वपूर्ण संदेश दिया। जबकि पूरा देश आजादी की खुशी में डूबा हुआ था, गांधी जी का उद्देश्य उन मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करना था जिन्हें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हल नहीं किया गया था। यह स्पष्ट था कि उनके विचारों के अनुसार, केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं थी; समाज को नैतिक और सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में भी बुनियादी परिवर्तन आवश्यक थे।

गांधी जी का यह कदम उनके जीवन और सिद्धांतों के प्रति सच्ची निष्ठा का प्रतीक था। उन्होंने हमेशा अहिंसा, सत्य, और आत्म-संयम पर जोर दिया और इन मूल्यों के बिना स्वतंत्रता अपूर्ण मानी। 15 अगस्त 1947 को, जबकि राजनैतिक मंच पर स्वतंत्रता प्राप्ति का जश्न मनाया जा रहा था, गांधी जी बंगाल के नोआखाली में हिंसा और सामाजिक अशांति को शांत करने में व्यस्त थे।

गांधी जी की अनुपस्थिति ने स्वतंत्रता के व्यापक अर्थों पर जोर दिया। उन्होंने बार-बार कहा था कि वास्तविक स्वतंत्रता तभी प्राप्त होगी जब हर नागरिक को उसके मूलभूत अधिकार, सम्मान और न्याय मिलेगा। उनकी दृष्टि एक ऐसे समाज की थी जहां सभी धर्मों, जातियों और लिंगों का समान स्थान हो।

इस प्रकार, गांधी जी ने स्वतंत्रता के जश्न से अपने आप को दूर रख, हमें यह समझाने की कोशिश की कि हमें सतत प्रयास करने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता की राह में यह मुख्य चरण था, लेकिन यात्रा अभी भी जारी थी। यह संदेश उनके अनुयायियों और समुदाय के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहा, और यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस दिन था। महात्मा गांधी के इस कदम ने हमें यह याद दिलाया कि स्वतंत्रता का सच्चा अर्थ केवल सत्ता परिवर्तन में नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक पुनर्निर्माण में निहित है।

1. महात्मा गांधी ने 15 अगस्त 1947 को आजादी के जश्न में क्यों शामिल नहीं हुए?

महात्मा गांधी विभाजन से होने वाली हिंसा और दर्द से दुखी थे, इसलिए उन्होंने आजादी के जश्न में शामिल होने से मना किया।

2. 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कहां थे?

15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी नोआखाली, बंगाल में थे, जहां वह सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के प्रयास में लगे हुए थे।

3. गांधीजी का आजादी के समय भारत के विभाजन पर क्या विचार था?

गांधीजी विभाजन के खिलाफ थे और उन्होंने इसे दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण घटना के रूप में देखा।

4. गांधीजी ने स्वतंत्रता के जश्न के दिन क्या किया?

गांधीजी ने स्वतंत्रता के जश्न के दिन उपवास रखा और प्रार्थना की, ताकि देश में शांति और सद्भाव बना रहे।

5. क्या गांधीजी स्वतंत्रता प्राप्ति से खुश थे?

गांधीजी स्वतंत्रता प्राप्ति से खुश थे, लेकिन विभाजन के कारण होने वाली हिंसा और बंटवारे से बेहद दुखी थे।

6. गांधीजी ने भारत के विभाजन को कैसे देखा?

गांधीजी ने भारत के विभाजन को दुखद और अनिवार्य नहीं माना, और वह इसे रोकने के लिए अंत तक प्रयासरत रहे।

7. 15 अगस्त 1947 को गांधीजी का संदेश क्या था?

गांधीजी का संदेश था कि स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी आती है, और हमें हिंसा और विभाजन से ऊपर उठकर शांति और एकता के साथ आगे बढ़ना चाहिए।

8. गांधीजी के लिए विभाजन का क्या मतलब था?

गांधीजी के लिए विभाजन एक बड़ी व्यक्तिगत और राष्ट्रीय विफलता थी, जिससे उन्होंने गहरा आघात महसूस किया।

9. क्या गांधीजी ने विभाजन को स्वीकार किया?

गांधीजी ने विभाजन को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया और उन्होंने इसे अंतिम उपाय के रूप में देखा।

10. गांधीजी के लिए स्वतंत्रता के साथ क्या चुनौतियां आईं?

स्वतंत्रता के साथ गांधीजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती विभाजन से उत्पन्न हिंसा और सांप्रदायिक तनाव को शांत करना था।

11. गांधीजी ने विभाजन के बाद क्या किया?

विभाजन के बाद गांधीजी ने हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में जाकर शांति स्थापना के प्रयास किए और लोगों को सांप्रदायिक सौहार्द की शिक्षा दी।

12. क्या गांधीजी ने 15 अगस्त 1947 को कोई समारोह किया?

नहीं, गांधीजी ने 15 अगस्त 1947 को कोई समारोह नहीं किया, बल्कि उन्होंने यह दिन उपवास और प्रार्थना में बिताया।

13. गांधीजी का 15 अगस्त 1947 पर क्या दृष्टिकोण था?

गांधीजी ने 15 अगस्त 1947 को एक महत्वपूर्ण दिन के रूप में देखा, लेकिन विभाजन के कारण उन्होंने इसे हर्षोल्लास के साथ नहीं मनाया।

14. गांधीजी ने विभाजन से उत्पन्न हिंसा को कैसे संभाला?

गांधीजी ने विभाजन से उत्पन्न हिंसा को रोकने के लिए अहिंसा, शांति और संवाद का रास्ता अपनाया।

15. गांधीजी ने स्वतंत्रता के जश्न में क्यों नहीं भाग लिया?

गांधीजी ने स्वतंत्रता के जश्न में इसलिए भाग नहीं लिया क्योंकि वह विभाजन और उसके परिणामस्वरूप होने वाली हिंसा से बहुत दुखी थे।

16. गांधीजी ने विभाजन को कैसे देखा?

गांधीजी ने विभाजन को एक त्रासदी के रूप में देखा और इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की असफलता के रूप में समझा।

17. गांधीजी ने स्वतंत्रता के दिन क्या संदेश दिया?

गांधीजी ने स्वतंत्रता के दिन अपने अनुयायियों को शांति, एकता और अहिंसा के मार्ग पर चलने का संदेश दिया।

18. क्या गांधीजी ने विभाजन के बाद की स्थिति को स्वीकार किया?

गांधीजी ने विभाजन के बाद की स्थिति को कभी पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया, लेकिन वह शांति स्थापना के प्रयासों में लगे रहे।

19. गांधीजी के लिए 15 अगस्त 1947 का क्या महत्व था?

15 अगस्त 1947 का महत्व गांधीजी के लिए एक तरफ स्वतंत्रता की प्राप्ति थी, लेकिन विभाजन की त्रासदी ने इस दिन को उनके लिए दुखद बना दिया।

20. क्या गांधीजी ने विभाजन को टालने के लिए कोई प्रयास किया?

हां, गांधीजी ने विभाजन को टालने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन अंततः वह इसमें सफल नहीं हो सके।

21. गांधीजी का विभाजन के प्रति अंतिम दृष्टिकोण क्या था?

गांधीजी का अंतिम दृष्टिकोण था कि विभाजन को रोकना आवश्यक था, लेकिन यह एक ऐतिहासिक भूल बन गई जिसे टाला नहीं जा सका।

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